विधि :- ध्यान के किसी आसन में बैठिये । घुटने भूमि पर आधारित हों । हथेलियों को घुटनों पर रखिये । दीर्घ रेचक कीजिये । बहिर्कुम्भक लगाइये । जालन्धर बन्ध लगाइये । अब उदर की मांसपेशियों को अधिक से अधिक ऊपर तथा भीतर की ओर संकुचित कीजिये । यह पूर्णावस्था है । आराम दायक स्थिति तक अभ्यास कीजिये । पश्चात् क्रमशः उदर के स्नायुओं तथा जालन्धर बन्ध को शिथिल कीजिये । पूरक कीजिये । श्वसन क्रिया सामान्य होने पर पुनः अभ्यास कीजिये।
समय :- कुम्भक लगाने की क्षमतानुसार। दस आवृत्तियाँ कीजिये।
एकाग्रता :- मणिपुर चक्र पर।
क्रम :- स्वतंत्र रूप से इसका अभ्यास आसन एवं प्राणायाम के उपरान्त एव ध्यान के पूर्व कीजिये। मुद्रा एवं प्राणायाम के साथ अभ्यास करना सर्वोत्तम है।
सावधानी :- जठर एवं आंतों के खाली रहने पर ही अभ्यास कीजिये।
सीमाएं :- दिल की बीमारी, जठर या पेट में घाव हो जाने पर अभ्यास निषेध है । गर्भवती स्त्री के लिये भी अभ्यास वर्जित है।
रम्भिक एवं स्थानापन्न अभ्यास
इस अभ्यास की तैयारी के लिये ‘ अग्निसार क्रिया ‘ की जा सकती है । यह क्रिया उड्डियान बन्ध का स्थानापन्न अभ्यास भी है।
लाभ
इस अभ्यास में श्वासपटल का ऊपर छाती – गह्वर तक खिचाव होता है । उदर के अंग भीतर मेरुदण्ड तक संकुचित किये जाते हैं । अतः इसका अभ्यास उदरस्थ एवं जठर की बीमारियों के लिये उपयोगी है । बदहजमी , अपचन पेट के कीड़े , मधुमेह की अवस्था को दूर करता है । जठराग्नि को उत्तेजित करता है । उदर के सभी अंगों को व्यवस्थित कर उनकी क्रियाशीलता बढ़ाता है । यकृत , क्लोम , वक , तिल्ली की मालिश करता है । नियमित अभ्यास से उनसे संबंधित रोग दूर होते हैं । वृक या गुर्दे के ऊपर स्थित उपवृक ग्रंथि को सामान्य बनाये रखता जिससे कमजोर व्यक्ति को शक्ति प्राप्ति होती है । परेशानी , चिंता की अवस्था में मन को स्थिरता प्रदान करता है । अनुकंपी तंत्रिकाओं तथा परानुकम्पी तंत्रिकाओं को उत्तेजित करता है । इन तंत्रिकाओं का संबंध शरीर के कई अंग विशेषकर उदर के अंगों , रहता है । फलतः इन अंगों के कार्यों में उन्नति होती है । अभ्यास द्वारा अंगों की प्रत्यक्ष मालिश होती है जिसके परिणामस्वरूप उनको क्रियाशीलता में भी वृद्धि होती है । नाभि प्रदेश में स्थित मणिपुर चक्र के लिये उत्प्रेरक का कार्य करता है । शरीर की प्राणशक्ति का यह केन्द्र है । अतः इस बंध के अभ्यास से प्राणशक्ति के बहाव में वृद्धि होती है । सुषुम्ना नाड़ी की ओर प्राण के प्रवाह को विशेष रूप से उत्साहित करता है।